गुरुवार, 14 मई 2009

गीत 03 [05] : मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ...

गीत 03 [05]  : मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ ---

मैं अँधेरा अभी पी रहा , इक नई रोशनी  के लिए

वैसे मुझको भी मालूम थीं  राज दरबार की सीढियां ,
वो कहाँ से कहाँ चढ़ गए, तर गई उनकी दस पीढियां,
मैं वहीँ का वहीँ रह गया, उनकी नज़रों में ना आ सका
सर को लेकिन झुकाया नहीं, एक मन की खुशी के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

मोल सबकी लगाते चलें/ ,खोटे सिक्कों से वो तौल कर,
एक मैं हूँ कि मर-जी  रहा ,अपने आदर्श पर ,कौल पर,
जिंदगी के समर में खडा ,हार का जीत का प्रश्न क्या !
पाँव पीछे हटाया नहीं,  सत्य की  रहबरी  के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

आरती हैं उतारी गई ,गुप्त समझौते जो कर लिए,
रोशनी के लिए जो लड़े ,रात में खुदकुशी कर लिए,
ना वो पन्ने हैं इतिहास के, ना शहीदों की मीनार में।
उसने जितना लड़ा या जिया, देश की बेहतरी के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

यह मकाँ तो किसी और का, नाम पट आप का बस जड़ा है
उसके सर पर न छत हो सकी , सत्य की राह पर जो खड़ा है 
जिंदगी ना मेरी भीख है,  ना किसी की ये सौगात है ,
मैंने जितना जिया आजतक, एक मन की खुशी के लिए।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

-आनन्द पाठक- 
सं0  20-04-21

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