शनिवार, 16 मई 2009

गीत 06 [11] : समर्पण गीत ....

गीत 06[11]

एक समर्पण गीत ....

चेतना हो जहाँ शून्य उस मोड़ पर,
वेदना हो जहाँ मूक उस छोर पर ,
हँस उठे प्राण-मन खिल उठे रोम तन
गूँज भर दो मेरी बांसुरी में ....।

भावना के सिमटने लगे दायरे ,
टूटने जब लगे प्रीत के आसरे ,
मैं पुकारूं तुझे श्वांस बन कर मिलो
जिन्दगी  के  सफ़र आख़िरी में ....।

अर्चना के सभी मूल्य मिटने लगे ,
साधनायें बिना अर्थ लगाने लगे   ,
रस मिला दो अधर का भी अपना ,प्रिये!
प्रीति की खिल रही मंजरी  में....  ।

गंध ही जब नहीं फूल किस काम का !
जब न तुम ही जुड़ो  नाम किस नाम का
गीत मेरे कभी लड़खडाने लगे
सुर मिलाना कि रस-माधुरी में ...।

रूप क्या है , सजा कल सजे ना सजे ,
मांग क्या है , भरा कल भरे न भरे     ,
शुभ मुहूरत मिलन की घड़ी देख कर
दान कर दो मेरी अंजुरी में ....॥

प्यार ही में रँगा तन रँगा मन  रँगा ,
इन्द्रधनु भी रँगा सप्त रंग में रँगा   ,
रंग ऐसा भरो जो कि मिट ना सके
अर्ध विकसित प्रणय-पंखुरी में ....।

---आनन्द पाठक-

[सं 04-08-19]

कोई टिप्पणी नहीं: